________________
सीतास्वयम्वर
२१५
rrrrrrrrrna
क्रोध हुआ उपशांत अति, प्रसन्न चित्त महारानी का। बोली महाराज ने मुझ पर खुद डाला कलशा पानी का ।।
दोहा (भृत्य) हाल देर का भृत्य से, पूछा नप ने फेर। पहिले जल तुझ को दिया कहां लगाई देर ।।
दोहा मैं चाकर महाराज का करू हुक्म तामील ।
जीर्ण मम काया बनी, लगी इस-तरह ढील ।। धरता पैर उठा आगे, पीछे को पड़ता जाता है। जब उठे निरंतर खांसी बलगम गले बीच अड़ जाता है। क्या करूं नारी है कलिहारी, अवनीत पुत्र दुःखदाई है। पुण्य उदय पिछली आयु मे, शरण आपकी पाई है ।।
दोहा स्वयं अपना हाल कह, शर्माऊ महाराज । अपनी नारी के कहूँ कर्त्तव्य क्या सिरताज ।।
बूढ़े भृत्य का निवेदन
गाना नं. १३ फूहड़ नार बहुत किलसावे ॥टेर।। बांकी टेढ़ी रोटी करती, नीरस साग बनावे । भाग्यहीन अब रोटी खाले, ऐसे लो वचन मुझे प्यार से
बुलावे ॥१॥ पहिले कहे बालन ला मुझसे, फिर पानी मंगवावे । क्षुधा के बस मांगू रोटी सिर पर खोंसड़े चार टिकावे ।।२।।