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रामायण
इसके सुदर्शन चक्र का, कभी वार रिक्त नही जाता था। इन्द्र भूप भी नल कुबेर से, इस कारण भय खाता था ।। चढ़े हुवे थे गौरव पै, जब फूट का श्रा साम्राज्य हुवा । उफ पश्चात्ताप बिना सब कुछ, खो महाराजा बेताव हुबा ॥
दोहा वैमनस्यता ने लिया, रूप भयानक धार ।
नृप रानी का परस्पर, बढ़ गया द्वेष अपार ।। जहां राग वहां द्वेष की नीमा, निश्चय पाई जाती है। द्वेष वहां पर प्रोति श्रा, विकल्प से असर जमाती है ।। सम विभाग का नाम नहीं, वहां स्वार्थता छा जाती है । तव फूट महारानी भी आकर, आसन वहां विछाती है ।। उपरभ्मा ने कुमुदा दासी को, घर का भेद बताया है। कहे पाणो का संदेह हमे, सौकनौं ने जाल विछाया है। किन्तु सुरव सार की निद्रा से, मैं भी ना इन्हें सोने दूंगी।
और मुझे रुलाया तो इनको, फिर कैसे सुख होने दूंगी! ऐ कुमुदा अब देर ना कर, झट रावण पास चली जा तू । यहां जाल बिछाया इन्होने, अब वहां पर जा जाल विछाया तू ।। यदि बने सहायक वह मेरे, मैं उनको अकसीर दवा दूंगी। चक्र सुदर्शन देकर से, आशाली भेद बता दूगी ॥ कह देना यदि अब चूके तो, फिर पीछे से पछताओगे। पराजय कुबेर न होवेगा, तुम अपने प्राण गमाओगे। सन्तोप जनक दिया उत्तर मुझे, तो आयु भर सुख पावोगे। नहीं लाभ के बदले हानि हागी, कर मलते रह जावोगे ।।
दोहा आज्ञा पा दासी चलो, पहुँची कटक मंझार । इधर खड़े थे गुप्तचर, पहले ही तैयार ।।