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रावण दिग्विजय
गाना नं० २६
(तर्ज- है दूर देश उस रंग का । कोई रंगते हैं ब्रह्म ज्ञानी ) कर्मो ने नाच नचाया, क्या से क्या मुझे बनाया सुरपुर के सम मैं इन्द्र था, सुधर्म सभा सम घर था । सब राज साज सुन्दर था, बन गई स्वप्ने की माया कर्मो ने मान गलाया । १ । कोई संग न साथी अङ्गी, सामान कहां वह साधन जंगी हुआ आज नीच एक भंगी, परतन्त्र महा दुख पाया हो गई स्वप्ने की माया ॥ २ ॥
उदय पूर्व कर्म दुखदाई, जिसने यह दुर्गति बनाई जिन्दगी सब वृथा गमाई, कुछ भी ना धर्म कमाया है ढलती फिरती छाया । ३ ।
शुक्ल मुनि कोई आवे, मन का सव भ्रम मिटावे । शान्ति का पाठ पढ़ावे, तोड़े कर्मो की माया
आगे कुछ नहीं कमाय । । ४ ।
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चौपाई
ज्ञानवान् मुनि एक पधारे । तब इन्द्र विनती उच्चारे ॥ कौन कर्म प्रभु किया अति भारी । जिसने करी दुर्गति हमारी ॥
दोहा
पूर्व भव का जो सम्बन्ध, कहे मुनि समझाय | जिसका फल तुमको मिला, सुनलो कान लगाय ॥ रिज नगर में ज्वलनसिंह, नृप वेगवती रानी तिसके ।' अहिल्या नामक सुता अनुपम, रूपवती जन्मी जिसके ॥ रचा स्वयंवर राजा ते नृप आये शोभा मतवाली । श्रानन्द माली गले से, कन्या ने वर माला डाली ||
नृप के