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रामायण
दोहा राजकुमारी सब तरह, है मित्र निर्दोष । निन्दा कुछ करती नहीं, ना मन मे कुछ रोष ॥ विवाहों के यह कार्य है, इनका यही स्वभाव ।
गाली हंसी अपमान सब, होते है रंग चार॥ अभी तो कुछ भी नही हुवा, फिर ब्याह मे तुम्हें दिखायेंगे। बर्ताव यही तुमसे होगा. देखे क्या आप बनावेगे । उसी समय वापस आये, दिल गुस्से मे था भरा हुवा। पर शादी से इन्कार किया, अपमान का भूत था चढ़ा हुवा।।
दोहा
फिर समझाया मित्र ने, प्रेम भाव मे आन । मांग व्याहे बिन छोड़ना, यह भी है अपमान ॥ क्षत्री नहीं वह मुर्दा जिसकी मांग दूसरा ले जावे । अपमान है अपने कुल का, और निज मान नहीं परसे जावे । प्रहसित मित्र ने समझाकर, कंकना तथा मुकुट बंधाया है अति सजी जंज गाजे बाजे, हस्ती पर पवन चढ़ाया है।
दोहा शोभा अधिक विमान की, वर्णी नही कुछ जाय । मान सरोवर जाय के, डेरा दिया लगाय ।। महेन्द्र नप ने लड़की का, मान सरोवर विवाह किया। हस्ती रथ विमान दहेज में, माणिक्य मोती हार दिया । चौंसठ कला प्रवीण, अंजना पहिले ही गुण आगर थी। फिर भी विदा समय माता ने, शिक्षा दई सुधाकर थी॥