________________
कैकेयी स्वयम्वर
१६५
जब समय हुवा कर माला का. लाखों वरनारी साजे हैं। शशि समान हुए दशरथ, बाकी वारोवत् राजे है।
दोहा प्रारम्भ हुवा व्यवहार अब, बैठे चतुर सुजान । अपने अपने पुण्य की होने लगी पहिचान ।।
__गाना नं० ५३ तर्ज-(गम खाना चीज बड़ा है) वह पुण्य राशि सज पाई स्वयंवर मे राजदुलारी (कुमारी) ।टेका सोलह सिंगार सहज अगमाई, सोलह ऊपर अधिक सुहाई, आभा सी बिजली बन आई क्रान्ति छवि अपार है, शशि वदना राजदुलारी ॥१॥ आज नहीं कोई इसके तोले, सोच सभी ने इष्ट टिटोले, मौन धार मन ही मन बोले, धन्य वही राजकुमार है, जिसकी यह बने प्यारी ॥२॥ जादू की यह है वरमाला, स्त्री रत्न एक यह आल्हा, पुण्यवान् वह कौन भुपाला, आकर्षण जिसमें सार है, इस लक्ष्मी का अधिकारी ॥३॥ शुक्ल पुण्य से सब कुछ मिलता, धर्महीन नित्य हाथ मसलता । सदा जमाना रंग बदलता, होता उसका उद्धार है, जिन वाणी जिस दिल धारी ॥४॥
चौपाई आई मंटप राजदुलारी, दासी-संग सहेली सारी। राजो के प्रतिविम्ब दिखावे । धाय मात ऋद्धि चतलावे ॥ सोलह श्रृंगार सहज अंग माही, सोलह ऊपर अधिक सुहाई । देख रूप सब का मन मोहे, इन्द्राणी सम.छवि अति सोहे।