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सीता स्वयम्वर
दोहा
नेत्रों को मलते हुये, उठे मुनि अंग तोड 1 काम बना मन मे खुशी, यो बोले मुख मोड़ |
दोहा ( नारद )
मिथिला नगरी है भली, जनक तहॉ भूपाल 1 चिदेहा के पैदा हुई, सीता रूप रसाल ॥ क्या करू भूप मै गुण वर्णन, बस भामंडल के लायक है । नल कुंवरी सम रूप सिया का, जोड़ी अति सुखदायक है | अब हम महलो मे जाकर, कुछ खाना खाकर आते है । और मन करता है चलने को, फिर पुरी अयोध्या जाते है ||
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सीता स्वयम्वर दोहा
खोकर बीज महा क्लेश का, उड़ गये आप आकाश | पुत्र को समझाय कर, दिया भूप विश्वास || चपल गति विद्याधर से, नृप बोले तुम मिथिला जाओ । श्री जनक भूप को रात्रि समय, निद्रागत यहाँ उठा लायो | आज्ञा पाकर जनक भूप को, रात समय ले आया है । चन्द्रगति के पास महल मे, लाकर तुरत सुलाया है ॥
दोहा
खुली आँख जब जनक की, विस्मित हुआ अपार देख देख चारों तरफ करने लगा विचार ||
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