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सीताभामण्डलोत्पत्ति
दोहा अतुल्य पुण्य इसने किया, मिला जो अद्भुत रूप 1 किन्तु पति इसको मिला, अनपढ़ और कुरूप ॥ अनपढ़ और कुरूप, यह किसने लाल गधे गल डाला । सांचे जैसा ढाला जिस्म है, अदभुत रूप निराला ॥ इस कौवे गल नही शोभती, यह रत्नो की माला । लू छीन इसे तो पिता मेरा, यहाँ का न्यायी भूपाला 11
दौड़
दिला वापिस ही देगा, मेरा नहीं पक्ष करेगा । यही अब ढंग रचाऊँ, ले पर्वत पर चढू दूर जाकर कहीं वास बनाऊँ ॥
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दोहा
जो कुछ या हाथ मे लेकर के सामान ।
दोनो वहाँ से चल दिये, नग में किया मुकाम ॥ पीछे पिगल फिरे भटकता, विरह ने आन सताया है । हार गया सिर पीट पीट, अन्तिम संयम चित्त लाया है ।। सुधर्म देवलोक मे पहुंचा, विराधक सुर पदवी पाई है । कुठल मंडित ने यहां दशरथ के, राज्य में धूम मचाई है || डाके और चोरी छल से, प्रजा को लगे सताने को । इस तरह आसुरी वृत्ति से, लगा अपना समय बिताने को || बालचन्द्र दिया भेज भूप, दशरथ ने उसे पकड़ने को । जा घेरा डाला सेनापति ने, डाकू चौर जकड़ने को || कुंडल मंडित को फुर्ती से विषम स्थान मे रोक लिया । निज शक्ति और चातुर्य से, पकड़ बंधन मे ठोक दिया ||
पर्वत