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रामायण
दूसरे स्वर्ग पहुॅची जाकर, अनुभूति विरह मे भटका है । अनमोल मनुष्य तन खो बैठा, भव चक्र गर्भ मे लटका है ॥ हुआ हंस बालक जाकर, हस्ती ने ग्रहण कर फेंक दिया । जा पड़ा मुनि के चरणो मे, नमोकार मन्त्र का शरण दिया ||
चौपाई
देवलोक मे पहुँचा जाई । वर्ष सहस्र दश आयु पाई ॥ जीव कुसंगति से दुःख पावे । शुभ संगति से सुख मिल जावे ॥
दोहा
विदग्ध नामक नगर में, प्रकाशसिंह महाराय । रेवती नामक नार के, पुत्र जन्मा आय ॥ कुण्डल मण्डित नाम पुत्र का, सुन्दर जिसकी काया है । अब सुनो हाल कयान विप्र का जन्म जहाँ आ पाया है ॥ चक्रध्वज राजा चक्रपुरी का, धूमसेन पुरोहित जिसका । स्वाहा रमणी है विप्राणी, पिंगल सुत कयान हुआ तिसका ||
दोहा
करती थी नृप कन्यका, विद्या का अभ्यास । पिंगल अति मोहित हुआ, देख रूप प्रकाश ॥
समय देख अपहरण करी जा, विदग्ध नगर निवास किया । इस काम बाण ने बड़ों-बड़ों का, अन्त में समझो नाश किया || विदग्ध नगर के नरनारी, इस रूप पे आश्चर्य करते थे । कई वशीभूत होकर मोह में कुछ के कुछ शब्द उच्चरते थे | कुण्डल मण्डित कुमर हाल सुन, घोड़े पर चढ़ आया है । देख रूप उस राजदुलारी, का मन अति हर्षाया है ॥ चारित्र मोहिनी उदय हुआ, सद्ज्ञान हृदय से दूर हुआ ।
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उस रूप की महिमा गाने लगा, जब राजकु वर मजबूर हुआ ||