________________
१६४
रामायण
प्रण यही करना है फेर किससे डरना है, तोड़ो कर्म जंजाल रे ||४||
दोहा
सूर्य वंशी नित्य रहे, राजो के सिर ताज । पुण्य हीन निर्भाग्य हम, गणना मे नहीं आज ॥
खेद आज सूर्यवंशिन को, नौता तक नहीं आया है । क्या मै ही ऐसा जन्मा जिसने, वंश का नाम लजाया है ॥ जिस होनी ने कल होना है, वह आज ही क्यों ना हो जावे । आन ना जावे वंश की चाहे, भेरी जिन्दगी खो जावे ॥ पर गणना मे नहीं नाम हमारा, कैसे स्वागत पावेगे । ख्याल नहीं इस बात का भी तलवार से जगह बनावेगे | बन का राजा सिंह कहाता, किसने उसको ताज दिया । यह उसके पराक्रम का फल है, जो ईश सभी ने मान लिया | जो कोई हमसे अन्याय करे तो, झगड़े से क्या डरना है । हां गौरव हीन का दुनियां मे, जीने से अच्छा मरना है ॥ यही सम्मति जनक भूप की, अवश्यमेव चलना चाहिये । व्यवहार को जिसने तोड़ दिया, तो उस खल को दलना चाहिये ||
1
दोहा
दोनो मित्र चल दिये, सहमत हो तत्काल ।
ठाठ वाट चाहे न्यून था, पर था पुण्य विशाल ||
वहां जा बैठे यह भी दोनां, जहां कुछ सिंहासन खाली थे । और बड़े बड़े भूपति बैठे, जिनके सेवक रखवाली थे | थी मान मे गर्दन ऊपर को, कानो में कुंडल पड़े हुए। शुभ सच्चे मोती हीरो से, मानों थे सारे जड़े हुए ||