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रामायण
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अद्भुत ढंग रचा ऐसा, पहिचान कौन कर सकता है। वर्णन क्या हम करें ना, दम शंका का कोई भर सकता है।
दोहा यही ढंग मिथिलापुरी, जनक भूप का जान ।
समय देख कर आगया, विभीपण बैठ विमान ।। बैठ विमान विभीषण ने, इक घूम गगन मे लाई है। शीघ्र वाजवत् देख समय, अपनी तलवार चलाई है। फेर व्योम में दौड़ गए, थी मन्त्री की हथफेरी सब । पकड़ो-पकडो दुष्ट गया वह, मारके नप को जान से अब ।।
दोहा ज्ञान था मन्त्री को सभी, शत्रु गगन मंझार ।
निश्चय दिलवाने निमित्त, शुरू किया व्यवहार ।। अगरक्षक सेवक योधे, सब मारे-मारे फिरते है। सब रुदन करें रानी सेवक, जन जरा धीर नहीं धरते हैं। सिंहासन पर पड़ा भूप, बस रक्त ही रक्त हुवा सारे। शब्द भयानक हा हा कार कर, रोते हैं बांधव प्यारे ॥
दोहा संस्कार मृतक किया, मन्त्री ने तत्काल ।
देख विभीषण चल दिया, मन में खुशी कमाल ।। ' यही अवस्था करी जनक की, रावण को जा बतलाया।
जो खटका था सो मिटा दिया, दशकन्धर मन में हर्षाया ।। यह मन्त्री के अतिरिक्त भेद ना, और किसी ने पाया है। उभर फिरे, दोनों राजे, अपना सर्वस्व वचाया है।