________________
हनुमानुत्पत्ति
१३५
दोहा विद्याधर प्रति सूर्य, जा रहा बैठ विमान ।
अबलाओ का रुदन सुन, ऐसे बोला आन । कहो वहिन तुम कौन भयानक, निर्जन वन मे आई हो। रही उदासी छाय बदन पर, क्यो इतनी घबराई हो । कारण इसका बतलावो, और पता चिन्ह अपना सारा। तुम हो मेरी बहिन धर्म की, मै सच्चा वीरन थारा ॥
__गाना नं० ३६ बताएं क्या मला तुम को, निशां अपना पता अपना । नहीं संसार मे कोई, नजर आता सगा अपना ॥ न माता न पिता कोई, न सासु ही बनी अपनी। पत्नी जिनकी बनी थी में, नही वह भी बना अपना ।। नहीं पाताल मे आकाश मे, तिरछे मे ठोर अपनी । रही एक सिद्ध शिला बाकी, वहाँ पर वास ना अपना ।। ठिकाना बेठिकानो का, किसी वन मे ना उपवन मे । निराशा भात है अपनी, दर्द दुख है पिता अपना ।। जगत भर ने तो ठुकराया, मुलाये भूलना चिन्ता । शुक्ल मै ढूंढ हारी ना मिला, कोई सखा अपना ।।
दोहा (प्रति सूर्य) समझ लिया मैने, तुम्हे है आपत्ति भूर । कहो यथार्थ बात जो, करू सभी दुःख दूर ।।
दोहा (वसन्त तिलका) ' पवन जय भारत है, महेन्द्र नृप तात ।
केतुमति सासु सही, हृदय सुन्दरी मात ।।