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रामायण
गाना ४४ तर्ज (साफ हृदय से रटो माला श्री भगवान् की) मनुष्य को अपने वचन का । पास होना चाहिये।
आपत्तियो के सामने नही ह्रास होना चाहिये ।। १ ।। संयमी जीवन बने तो और कुछ चाहिये भी क्या । संसार या मोह कर्म का नहीं। दास होना चाहिये ॥२॥
तरसते है देवगण । अनमोल संयम के लिये।
साधन मिला तो काम भी कोई खास होना चाहिये ।।३।। पूरण रत्न सच्चे महाव्रत । आज गुरुवर देरहे-- सार्टिफिकट ले मोक्ष मे ही । वास होना चाहिये । ॥४॥
संयोग सबनश्वर जगत के । स्वप्नसम माया सभी।
वीतरागी ज्ञान का अभ्यास होना चाहिये ।। ५।। कह चुके अब शुक्ल क्षत्री का चचन टलता नहीं । ज्ञानक्रिया से कर्म का नास होना चाहिये ।
दोहा समझ लिया संयम बिना, मिले नहीं निर्वाण ! चार महाव्रत धार के किया आत्मकल्याण ॥ विजय भूप को पता लगा, वैराग्य भाव दिल आया है । पुरन्दर सुत को दिया राज, तप संयम मे चित्त लाया है ।। पुरन्दर भूप ने निज सुत कीर्तिधर को ताज सजाया है फिर छोड़ दिये जंजाल सभी, तप संयम ध्यान लगाया है।।
दोहा
कीर्तिधर नप का सदा, रहता चित्त उदास। मन्त्रीश्वर कहने लगा, भूप न तजः रणवास ॥