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सूर्यवंशावली
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दोहा । समझाया मंत्रीश ने, नही माना भूपाल ।
राज पुरुष प्रजा सभी, बिगड़ गये तत्काल । एक रंग होकर सबने, सीमा से बाहिर नृप राज किया। सिंह रथ पुत्र जिसको, प्रजा ने मिल कर राज दिया । दक्षिण दिशा सौदास गया, वहां मुनि मिला इक तप धारी। करी चरण प्रणाम मुनि थे, ज्ञानी बाल ब्रह्मचारी ।। (तर्ज-मैंने जान लिया है प्यारे रे झूठा है संसार) संसार हिंडोला प्यारा रे फरमा गये अवतार ।।टेर॥ जो नर्क गति मे दुख है, तो पशु गति मे क्या सुख है। आनन्द सुर गति से विमुख है; नरतन में क्या है सार ।।१।। यह चार गति का घर है चौरासी का चक्कर है। सोलह कषाय दुक्कर है दुख मे फिरता है संसार ॥२॥ हो दस प्रकार से अन्धा, कर्मो के वस में बन्दा । यह काल अनादि फंदा रे, स्वप्ने का संसार सं०॥३॥ कभी ऊचा कर्म बनावे, कभी नीचे को पटकावे । क्यो नहीं धर्म शुक्ल दो ध्यावे रे आतम का हितकार ॥४॥
चौपाई दिया उपदेश मुनि हितकारी । मदिरा मांस पाप महा भारी॥ यहां बेइज्जती परभव दख कारी । नरको मे अति होय ख्वारी॥ सुन परभव दु:ख नृप घबराया । तब मुनिवर ने नियम कराया ।। अशुभ कर्म के बने सुत्यागी । पुण्य दशा पूर्व की जागी॥
दोहा नगर महापुर से गये, वहां के जो मंत्रीश । नृप हीन प्रजा सभी, चाहते थे कोई ईश ॥