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रामायण
रंचक भय नहीं लाऊँ । गु० १॥ आपने ही ये ज्ञान सिखाया, निर्भय सेवा कर्म बताया।
__कर्त्तव्य पथ बलि जाऊँ । गु० २॥ कर्म वीर मैं क्षमा धीर हूँ, षट काया का एक पीर हूँ।
तन की बलि चढ़ाऊँ । गु०३ ॥ अब जल्दी गुरुवर मोहे तारो, सहित आलोचना के समारो।
कृतकृत्य बन जाऊँ । गु०४ ।। शुक्ल ध्यान हो क्षिपक श्रेणी, ज्ञान दर्श चारित्र त्रिवेणी।
निज गुण को प्रगटाऊँ । गु०५॥
दोहा पीछे कर निज गुरु को, आगे हुआ मुनि वीर ।
आई सिंहनी कूद के, लक्ष्य पै जैसे तीर ।। मुनि समाधि लीन ध्यान, क्षपक श्रेणी का लाया है। जिस सुत को पाला माता ने, बस आज उसी को खाया है । ब्रह्मज्ञान अन्तिम पाकर, मुनि जा निर्वाण सिधाया है। कीर्तिधर ने भी अन्तर पा, अक्षय मोक्ष पद पाया है।
दोहा चित्र जयमाला नार ने, जाया सुन्दर नन्द । हिरण्यगर्भ नामे भला, शत्रु कन्द निकन्द ।। हिरण्यगर्भ के नार है, मृगावती शुभ नाम । नधुक नाम का सुत हुआ, दुःखी जन को विश्राम ।। हिरण्यगर्भ भूपाल ने, देखा श्वेत सिर केश।
विरक्त भाव मन मे हुआ, सुन यमदूत सन्देश ।। दिया नधुक को ताज भूप ने, आत्म कार्य सारा है । रानी सिंह का नधुक भूप के, रूप रंग कुछ न्यारा है ।।