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रामायण
दोहा निर्दोषन को दुख दिया, अन्याय कियो तें मात । बिना मौत मारा उसे, मेरी कर दई घात ।। मेरी कर दई घात मात, तेने यह पाप कमाया। बारह वर्ष सहा दुख जिसने, अन्तिम धक्का खाया ।। पहिले देकर दोष फेर, तैने पिहर पहुंचाया । इसका फल अब समझ मात, तूने पुत्र नहीं जाया ।।
दौड कहां देखू अब जाई, शेर चीते ने खाई। मरू अब मार कटारा, निर्दोषन को दिया दुख मैं महा पापी हत्यारा ॥
दोहा मात पिता तथा मित्र ने, लिया कुमर समझाय । देखन को चारों तरफ, दिये विमान दौड़ाय ॥ अंजना के पितु माता से, पता लिया नृप जाय ।
महेन्द्र नृप ने कहा | बनखण्ड दई पहुँचाय ।। साले आदि चले सभी, सब स्थानो में खोज करी। पैदल फौज फिरे बन बन, विमान शहर और गिरि गिरि। नहीं पता चला कुछ रानी का, तब पवन जय घबराया है ।। और पास बुलाकर मित्र को, अपना सब भेद बताया है।
दोहा मित्र कहो जा मात से, मम अन्तिम प्रणाम । मिली नहीं अजना सती, करू वास सुरधाम ।। समझाया मित्र ने पर, नहीं कुमर एक मन मे मानी। फिर शस्त्र सब लिये मांग, प्रहसित बोल मीठी वाणी ।।