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रामायण
GAVARAVA
पिता नहीं वह शत्रु जो, बच्चों को नहीं पढ़ाता है । नही शूरमा है कायर, जो रण में पीठ दिखाता है । नालायक वह बहू सदा. जो सास से टहल कराती है । विनय रहित जो पुरुष, कीर्ति उसकी भी छिप जाती है ।। मै रहूं पिता संग्राम जाय, यह बात न मुझको भाती है। है कायरता का कर्म मुझे, इस कर्म से लज्जा आती है ।।
दोहा हय गय रथ पायक सभी, हुए विमान तैयार । जंगी वस्त्र पहिन कर, मन में खुशी अपार ॥ पता लगा जब नार को, आई दर्शन काज ।
हाथ जोड़ कहने लगी, सुनो अर्ज महाराज ॥ ना कभी आज्ञा भंग करी, ना तन मन से अपराध किया । केवल शरणा एक अापका, क्यो उससे भी धिक्कार दिया ।
आप तो हैं रक्षक मेरे, फिर कसर कोई मुझमें होगी। जिस अपराध से आपके, मन मे नाराजगी बैठी होगी ।
दोहा पवन जय जब देखता, तिरछी दृष्टि डाल ।
बिन पानी सम फूल के, महारानी का हाल ।। चमक दमक सब मुआई, शृंगार नहीं कोई अंग मे। शुभ लक्षण जो पड़े हुए, वह कैसे छिप सकते तन मे ।। ताम्बूल न कोई मिस्सी है, ना अंजन आँख मे लाती है । फिर भी तो यह सुन्दर पुतली, हीरे की चमक दिखाती है ।।
दोहा आगे बढ़ रानी झुकी, गिरी चरण में आन । आप मेरे भार है, आप ही प्राण समान ।।