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रामायण
दोहा कैसे पाला था इसे, लाड चाव के साथ ।
मेरे गौरव का किया, इस दुष्टा ने घात ।। अमृत मे विष बेल और, घन से बिजली होती पैदा । दीपक से जैसे काजल, तैसे यह मुझसे हुई पैदा ॥ सर्प कटी हुई अंगुली को, रखने से जहर पसरता है । इसी तरह इसको रखने से, अपयश मेरा बरसता है ।।
दोहा
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देख सका ना दुःख महा, मन्त्री चतुर सुजान। राजा को कहने लगा, ऐसे मधुर जबान ।। राजन् करना चाहिये, सोच समझ कर काम ।
गुप्त महल रखो इसे, लेवो भेद तमाम ।। ससुर गृह रूसे लड़की तो, पीहर में आ जाती है । यहाँ से आगे और कही पर, ठौर नहीं दिखलाती है । जल मे नही अग्नि होती, ना ज्ञान असंगी पशु में है। इस लड़की मे कोई दोष नही, यदि है तो केवल ससु में है।
___ दोहा मन्त्री तुमको नही पता, पवन जय प्रदेश ।
यहां भी घृणा थी उन्हे, कारण कौन विरोष ।। अपनी बेइज्जती पर मन्त्री, सब कोई पर्दा पाता है । ऐसा कौन है दुनिया में, जो अपनी धूल उड़ाता है ।
जब छिपी हुई यह बात नहीं, फिर कहो तो क्या बन सकता है। , यदि वमन उछल गई छाती से, तो रोक कौन जन सकता है।