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रामायण
तेरे दुख से आज दुस्खी, हृदय अपार स्वामी का । देखो दृष्टि डाल नयन, झरना हो रहा पानी का ।
दौड़ कटक सब मान सरोवर, विमान से आये है घर । लौट कर फिर जाना है, देरी का नहीं काम पता क्या कब मुड़के आना है ।।
दोहा बैठ झरोखे अंजना लगी देखने हाल । निश्चय कर पट महल के, खोल दिये तत्काल ।। पवन जय प्रवेश हुआ तो, महा प्रसन्नता छाई है । मेघ शब्द सुन घोर मोर, मम मीठी कूक सुनाई है ।। थल पर मीन तड़फती को, जैसे जल के फरस रहा । आषाढ़ के लगते ही जैसे, बागड में पानी बरस रहा ।
दोहा
भद्र ! क्षम अपराध मम, दिया तुझे दुःख भूर ।
दोष नही तेरा कोई, मेरा सभी कसूर ।। विना विचारे किया काम मैं, मिला तुझे अनजान पति ।
और तू महान गम्भीर समुद्र, शीलवती है पूरी सती ।। अब अार्तध्यान तजो मन से, शीतल स्वभाव चन्दन तेरा। मै हूं कटुक जहर मानिन्द, पत्थर समान हृदय मेरा ॥
दोहा ऐसी बातें मत कहो, लगता मुझको पाप । मैं चरणो की धूल हूं, परमेश्वर प्रभु आप ।। आप तो रक्षक है, मेरे, मैं ही निर्भागि नकारी हूं। कुछ दोष नहीं महाराज आपका, मैं कर्मो की मारी हूं ॥