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हनुमानुत्पत्ति
बसन्त तिलका ने कहा तुम नहीं जानो भेद ।
विद्युत प्रभ स्वल्प आयु है, सरती नही उम्मेद ॥ चौथी बोली सोच समझ कर, बात नहीं तू करती है । कहाँ अमृत कहाँ जहर सभी को, एक भाव से धरती है। अपना ही तान अलाप रही, गौरव ना जरा पिछानती है। यह संस्कार पिछले जन्मो के, तू बावली क्या जानती है ।
___ दोहा बसन्त तिलका से सखी, बोली कुछ झुझताय ।
सुन मेरी तू बात को, वृथा ना यों घबराय ।। स्फटिक रत्न सुकांच कहां, और कहां मुलम्मा कहां मणि । राढा मणि स्वर्ण मेल कहां, कहां हेम कहां लोहिताल मणि ॥ कहां विद्य त प्रभ चर्म शरीरी, कहां पवन जय भवधारी। कहा गुलाब और फूल सेवती, केसूफूल लसन क्यारी॥
दोहा सुनते ही व्याख्यान यह, हुवा पवन जय लाल | तलवार खैच कर मे लई, बोला अखि निकाल ॥ बोला आंख निकाल मेरा यह प्रेम नहीं रखती है। अपमान मेरा सुन खुश होती, मन ही मन मे हंसती है।। है इसके आधीन सभी, फिर मना नही करती है। क्या मित्र ये शून्य चित्त, मम अर्धाङ्गिनी बनती है।
दौड़ मार कर आज दुधारा, करू इसका सिर न्यारा । प्रहसित तब बात सुनाई, नारी अवध्य कहाए बता शूरमता कहां चलाई॥