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रामायण
क्या क्षत्रापन रह जावेगा, ऐसे वापिस हो जाने से । क्या विघ्न ना सन्मुख आवेगा, कुछ आगे कदम बढ़ाने से ॥ यह भी शक्ति इक इन्द्र की जो दाहिनी, भुजा कहलाती है। यदि यही हाथ से निकल गई, तो पछताना रहे बाकी है । साधारण कोई चीज नहीं, यह आशाली एक विद्या है । यहां घबरा गये सभी योद्धे, अव पीछे हटे तो निन्दा है। ये पुण्योदय है समझ सभी, कुदरत ने मेल मिलाया है। अब इसे नहीं तजना चाहिये, यह भी एक अद्भुत माया है ।।
दोहा दशकन्धर ने जब सुनी, रहस्य भरी यह बात । मौन धार बैठा रहा खुशी से फूला गात ।।
गाना नं० २७ जिधर भी देखो जहाँ-तहाँ, यह सभी पसारा प्रेम का है। नर सुर इस और परलोक, क्या बस सभी नजारा प्रेम का है। ग्रह गणों का भी मेल होता, शशि की शोभा बढ़ाने वाला । गिरी द्वीप और समुद्र रचना यह खेल सारा प्रेम का है। वसन्त ऋतु जलवायु सवजी का, प्रेम अनुकूल गूढ़ होता। फल फूल पक्षी व मीठे स्वर क्या, सभी इशारा प्रेम का है ।। मात-पितु की स्नेह दृष्टि, यार मित्र व वन्धु गण क्या । स्वामी भ्राता व भगिनी पत्नी, यह नाता सारा प्रेम का है ।। किन्तु होते अनित्य सब यह, धमे कर्म निज ध्यान भक्ति । श्रद्धा चारित्र सेवा सतगुरू की, मोक्ष द्वारा प्रेम का है ।। विपरीत होती है इसके सृप्टि, विरोध जहां पर के भापता है। शुक्ल उन्नति वहां पर होती, आगमन प्यारा प्रेम का है ।।