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रावण दिग्विजय
गुणवान मधुक को जान, रावण ने कन्या उसे विवाही है । सम्बन्ध जोड़ दे पुत्री भट, आगे को करी चढ़ाई है |
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दोहा
लगा सितारा चमकने बढ़ता जाय नरेश | भूपति आचरण गिरे, सेवा करे विशेष ॥ अष्टादश वर्षो तलक, रहा जंग से प्यार । सूर्य किरणो की तरह, हुवा पुण्य विस्तार ॥ फिर आये महिमण्डले, नल कुबेर दिग्पाल | दुर्लध्यपुर का भूपति, राज्य करे सुविशाल ॥ आशाली विद्या पर उसे, था अत्यन्त गुमान । रखता था नगरी. गिरद प्रचण्ड अग्निहर आन ॥ कुम्भकर्ण सेना समेत, जब बढ़ा तरफ रजधानी के । ना सही गई आशाली झलक, तो छक्के छुड़े गुमानी के ॥ फिर सबने सोच विचार किया, दशकन्धर भी घबराया है । विमान व्योम मे चढ़ा दिये, किन्तु ना रस्ता पाया है ||
दोहा
रावण कहे सुग्रीव से, करो उपाय विवेक । जिस से यह कार्य बने रहे हमारी टेक ॥
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कपि पति तब कहने लगा, सुनिये कृपा निधान । काम यह अति कठिन है, बिना भेद भगवान् ॥ यही समझ मे आता है, कुछ रूप बदल चहुं ओर फिरें । जो मिले पकड़ लालच देकर, ले भेद सभी ना फरक करें || इधर लगे यह फिरने को, वहां नल कुबेर घर फूट पड़ी। शुक्ल जहां पर विरोध बढ़ा, वहां समभो के इज्जत बिगड़ी |