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बालि-वंश
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__ श्री जिन धर्म अमूल्य मनुष्य तन, बचौं सभी धोखो से । दीक्षा लेकर हुए मुनि, सहे कटुक, वचन लोगो से ।।
.. दौड़ ' रहे सुमति ही ध्यान मे, आ निकले तप मैदान में । जंग कर्मो से लाया, करते उग्र विहार चला चल नगर बनारस आया ॥
दोही देव कपि काशी हुआ, लुब्धक अति पापिष्ठ ।
श्रा रस्ते मुनिवर हना, अधर्म लगता इष्ट ।। 'अधर्म लगता इष्ट, समझ मुनि रोष नहीं कुछ कीना। समता दिल में धार, माहेन्द्र सुर पद मुनिवर लीना ।। भोगे सुख अनेक स्वर्ग के, अमृत रम को पीना। जैन धर्म का यही सार रहै, दोनो लोक आधीना ॥
दौड
लुब्धक गया नरक मे, आप सुख भोग स्वर्ग में। '' यहाँ पर हुवा नरेन्द्र, नरक गति के भोग अतुल दुःख जन्मा आकर बन्दर ॥ ,
दोहा वैर वधाने वास्ते. घाव लगाया आन ।
बदला लेने वास्ते, तूने मारा बाण ।। तूने मारा बाण मृत्यु पा, देव हुआ वानर है। इस कारण संसार महा दुःख, उथल-पुथल का घर है । कभी नरक तिर्यञ्च, चहुँ गति चौरासी चक्कर है। सम दम खम जिन धर्म विना, खाता फिरता टक्कर है ॥