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रामायण
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दोहा निश्चय मेरा पुण्य भी, है वृद्धि की ओर ।
रूप रंग शुभ वर्णने, लिया चित्त मम चोर ।। है आशा मुझको आज, मनोरथ मन चिन्ते पाः बिना किये अब बात, यहां से मै ना कभी जाऊँगी। निकल गया यदि तीर हाथ से, पीछे पछताऊँगी। राजी से नाराजी से, स्वीकार मै करवाऊँगी॥
दौड़ समाधि जब खोलेगे, तभी मुख से बोलेगे। चाहे जितनी हो देरी, अब तो दिल मे ठान लई बस बनू चरण की चेरी ॥ (तर्ज- ऋषभ कन्हैया लाला आगने में रिम झिम डोले) देखी अनुपम आज सूरत मोहन गारी ।। यौवन की कैसी बहार, खिली केसर क्यारीटेर।। ऋतु अनुकूल वे बसंत मै फूलो की डाली । इष्ट भंवर सुखकार, मकरंद का अधिकारी॥१॥ कब खोलेगे मौनी ध्यान, मुझको क्षण क्षण भारी। निश्चय पूर्व संयोग ने, विह्वल कर डारी ॥२॥ ये ही मेरे सरताज, इस तन के अधिकारी ।। बाकी भाई पिता तुल्य प्रतिज्ञा हमारी ॥३॥ धर्म शुक्ल दो ध्यान प्राणी को हितकारी। बाकी शुभाशुभ कर्म भोगे नर क्या नारी ॥४॥
दोहा विद्या सिद्धि जब हुई, मानव सुन्दरी आन । । राजकुमार प्रसन्न चित्त खोला अपना ध्यान ।।