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रावण-वंश
वड़ी कौशिका बहिन मेरी, वैश्रवण भूप को व्याही है। और नाम कैकसी मैंने, तुम चरणो की सेवा चाही है ।
दोहा हाथ जोड़ यह बिनती, हो जावे स्वीकार । आशा मम दिल को बंधे, आपका हो उपकार ।। आपका हो उपकार चाह है, वाग्दान पाने की। इच्छा मेरी प्रबल, आपके चरणो मे आने की। अर्धाङ्गिनी लो बना मुझे. वस और न कुछ चाहने की। करवाये विन स्वीकार विनती, मैं न कहीं जाने की।
कैकसी गाना नं08 सेवा करने की मुझे, आज्ञा तो सुना देना । वचन देकर के मेरी, आशा को बंधा देना । स्थायी ।। रुग्ण बन करके मैं, आई हूँ द्वारे तेरे। करे जो कष्ट निवारण, वही दवा देना ।। आशा करके आई हूँ, मै शरणा लेने। निराश करके मेरी आशा न गंवा देना। उत्कण्ठा है मुझे, आशाजनक शब्दो की। नाव मझधार पड़ी, पार तो लङ्घा देना ।। आयु पर्यन्त नहीं, आप विना लक्ष्य कोई । शुक्ल है ध्यान मेरा, धर्म तुम बचा देना ।।
दोहा सुन सुकुमारी के वचन, सोच रहा सुकुमार । मन ही मन मे मौन हो, करने लगा विचार