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तारा
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तारा
दोहा गिरी वैताड विशेष ये, ज्योयिपुर वर नामा
विद्याधर था ज्वलनसिह, वहां राजा अभिराम ।। रानी जिसके श्रीमती तारा सुता प्रधान । चौसठ कला प्रवीण थी, रूपवती गुण खान ।। चित्रांग नाम एक अन्य नरेश्वर, सहसगति सुत जिसका था। विमान चढी तारा को देखकर, मोहित चित्त हुवा उसका था। चारित्र मोहिनी कर्म उदय, ना अपना आप संभाल सका। प्रमत्त हुवा लगा कहन मित्र से, ना मौके को टाल सका ।।
गाना नं० २२ (तर्ज-पहिले ना स्वार्थी का इतबार किया होता) मुझ बे गुनाह के हृदय किसने कटार माराहुये टुकड़े टुकड़े तन्के । और जिगर पारा पारा ॥१॥ ऐसा नसा पिलाया शुद्ध बुद्ध सभी भुलाईकिस वैद्य को दिखाऊ । मेटे जो दुख सारा ।।२।। माला रहूँगा तेरी तल्लीन होके अब मैदुनियाँ मे जिन्दगी का, तू ही मेरा सहारा ॥४॥ सब हेच तेरे सम्मुख, ये राज क्या खजाना । शिक्षा शुक्ल किसी की मुझ को नही गवारा ॥४॥ सर्वस्व करू न्यौछावर । जैसे भी तेरी खातिरकैसे भी करळे तुझ को मै पाऊंगा मइपारा ॥५॥
दोहा मित्र सुमन ये कौन थी, मुझे मार गई तीर । नस नस मे होने लगी, अति असह्य पीर ॥