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रावण दिग्विजय
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रावण दिग्विजय
दोहा समय देख सग्रीव ने रावण के हितकार।
अपनी सेना को किया. कूच के लिये तैयार ॥ रावण और सुग्रीव सहित, सेना ले सज धज हुए रवां । पाताल लंक जाने का दिल में, पूरा कर लिया इतमिनां ।। पता लगा जब खर दूषण को, जिये स्वागत के पहुंच गये। भेंट हुई आपस में जिस दम, प्रेम के बादल झूम रहे।
दोहा नदी नर्मदा के निकट, जाकर किया पड़ाव ।
सभासदो के बीच मे, बैठा रावण राव ।। तत्काल चढ़ा जल ऊपर को, जा सेतु से टकराया है। निष्कारण क्यो चढ़ा आज, जल इसका भेद न पाया है ।। फिर दिया हुक्म दशकन्धर ने, इसका कारण मालूम करो। यदि छोड़ा है किसी शत्रु ने तो, उस दुर्जन का मान हरो॥
दोहा बैठ विमान में चल दिये, देखा जाकर हाल । दशकन्धर को आनकर, बतलाया तत्काल ।। अद्भुत है रचना बनी, हुवा अनुपम काम । या यो कहिये भूमि पर, उतरा है सुर धाम ।। महाराज यहाँ से बड़ी दूर, एक देश बड़ा लासानी है। सहस्रांशु नृप तेज रविवत्, महिष्मती रजधानी है। बहुत भूप सेवा करते है, सहस्र एक सुन्दर नारी। प्रेम हेतु जल क्रीड़ा के, उसने रोका था यह पानी ॥