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रामायण
तप जप से निर्बल है शरीर, यह सोच सामने आया है। तेज प्रताप देख मुनिवर का, मन मे अति घबराया है। फिर साचा शिला उखाडू मै, और इसको नीचे दे मारू । परभव यह स्वयं सिधारेगा, मै अपना बदला ले डारू ।।
दोहा दशकन्धर निज शीश से, शिला उठाई श्रान । कपन सुन मुनिराज ने, देखा लाकर ध्यान ॥
उपयोग लगा देखा दशकन्ध्रर, मुझको मारने आया है । तब पांव से जोर शिला पर दे, भूपाल का शीश दबाया है। जब रोया और चिल्लाया तो, बाली ने चरण हटाय लिया ॥ आ गिरा शरण माफी मांगी, तब मुनिवर ने यो कथन किया। क्षत्री होकर के रोया तू, एक दाब जरासी आने पर। इस कारण रोवण नाम तेरा, है दिया आजसे हमने धर ।। नृप बार बार चरण गिरता, बाली मुनि का गुण ग्राम किया। इतने मे देव धरणेन्द्र ने आ मुनिवर को प्रणाम किया ।
दोहा सेवा करता मुनि की, जब देखा रावण वीर ।
अमोघ विजय शक्ति दई, तोफा इक अक्सीर ॥ अमोघ विजय शक्ति पाकर, रावण खुश हो उठ धाया है। कहे तीन खण्ड के साधन को, यह शस्त्र अद्भूत पाया है ।। इन्द्र निज स्थान गया, मुनि निर्मल ध्यान लगाय लिया। दस विध का धर्म आराधन करके, अक्षय मोक्ष पद पाय लिया ।