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रामायण
कर्म मल के वसमे ये आत्मा, भ्रम ने सताई है ॥१॥ नर्क तिर्यच और मानव, स्वर्ग इन चारों गतियों मेंमिले पुण्य पाप से ऊची गति या नीचताई है ॥२॥ कभी चक्री व वासुदेव-इन्द्र पदवी है पाताचौरासी चक्कर मे फिरता, मिलें साधन दुखदाई है ॥ ३॥ कभी ये रंक से बन राव, अन्धा मान मे झूले । सताकर और का गरदन कभी अपनी कटाई है ॥ ४॥ राग और द्वेष क्यो करना ये शत्रु आत्मा के हैश्री सर्वज्ञ की वाणी सदा सबको सुखदाई है ॥५॥ क्या हुवा मैंने सभी दुनिया विजय करलीवही योधा शुक्ल जिसने, विजय कर्मो से पाई है ॥६॥
विरक्त वाली
चौपाई बाली का दिल हुवा वैरागी । तप जप करने की लव लागी। यह दुनियां सब धुन्द पसारा । फंसे जीव मकड़ी जिम जाला ॥ राज ताज सुग्रीव को दीना । ध्यान शुक्ल संयम रस लीना॥ लब्धि धार हुए मुनि राई । चरणी गिरे देवन पति आई ॥ अष्टापद पर्वत पर आये । ध्यान अडिग खड़े मुनि लाए । दुनिया समझी कूड कहानी । आत्म सम समझे सब प्राणी ॥
गाना नं० २१ (तर्ज-दुनियां में बाबा क्या है भरोसा इस दम का ।) दुनिया मे प्राणी क्या है भरोसा वैभव का । टेक "आज़ कहां है काल कहां है । रहना नहीं तो राज कहां हैंमहल खजाना साज कहां है । बने भस्म तन सब का रे ॥१॥