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रामायण
धार्मिक संस्थाओं की सेवा मैं कैसे कर सकू। साधन नहीं अनकूल फिर, सेवा बजाऊं किस तरह ॥ शुक्ल बस एक भावना के, और कर सकते है क्या ? भोगे बिन कृत कर्म से, छुटकारा पाऊं किस तरह ।।
दोहा
एक जान हो परस्पर, लगे सभी निज काम । सिंहनी वत् निश्चित किया, पर्वत को निज धाम ।। नाम ब्राध रख दिया और, लगी निशदिन पोषण पालन को ।। या यो कहिये लगी शूर, वीरता के सांचे में ढालन को । देश धर्म सेवा रूपी शिक्षा, जल नित्य सींचती है । और क्षत्रापन की चतुराईसे, शत्रु का दिल भी खैचती है ।।
दोहा दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा, होनहार सुकुमार ।
देख पुत्र के तेज को, माता है बलिहार ।। ग्रह गणपति के समान, यह भी है चन्द्रमा चढ़ा हुआ । शत्रु की हानि राज ताज ले, चिह्न तेज वह पड़ा हुवा ।। आशा मेरी पूर्ण होती यदि, राज महल अन्दर होती। कह नहीं सकती जिह्वा से, मैं क्या-क्या सुकृत यश बोती ।।
दोहा (दासी) आशा वादिन आशा रख, दिल मे समता धार । कभी महा प्रकाश हो, कभी कभी अन्धकार ।। कभी रंक और कभी राव, यह दशा कर्म दिखलाते हैं । अशुभ कर्म के उदय होत हो, राज पाट खुर शुभ कर्मो के आने से, सब ही आकर मिल जाते हैं। करे मूल उद्यम इसका, जो जरा नहीं घबराते है ।।