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रामायण
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। गाना नं. १५ । ' तर्ज-( कौन कहता है कि जालिम को सजा) पुण्यशाली का सदा गौरव बढ़े संसार में ।
• उल्टा भी सीधा काम हो, सरकार में दरबार में ॥१॥ जहाँ कहीं भी हाथ डालें, सिद्ध कार्य हो सभी।।
1. देव भी आकर झुकें सिद्धहस्त राज व्यापार में ॥२॥ पुण्य चिन्तामणि- बिना, चिन्तामणि मिलता नही। ...
अशेष गुण सब ही समोते है सुखी दरबार में ॥३॥ धर्म ध्यानी शुक्ल ध्यानी, हो शुक्ल परमारथी।
तल्लीन आत्म-मे सदा हो लक्ष सिद्ध निराकार में ॥४||इति॥ बस फिर क्या अनुराधा मन में, फूली नहीं समाती थी। मुख रूप चन्द्रमा देख पुत्र का, दृष्टि नहीं हटाती थी।
कुछ पूर्व वार्ता स्मरण कर, नयनो से जल भर लाई है। ' फिर देख सुकर्मा दासी को, यो कोमल गिरा सुनाई है ।
दोहा
आज सुकर्मा होगये, उदय कर्म सुखकार । । किन्तु एक मेरे हुआ, दिल में दुःख अपार ॥
यदि आज महल में सुत होता, तो तेरी आशा फल जाती । राजा को देती सन्देशा, तू अतुल द्रव्य वहां से पाती ।। होता मस्तक पर तिलक तेरे, दासीपन से छुट्टी होती। उत्सव मे दे दे दान बीज मै, क्या-क्या सुकृत का बोती ।।
रोना आता मुझे लाभ से, वंचित है सेवक मेरे।। ' अय कर्म मुझे कुछ पता नहीं, अब कौन इरादे है तेरे॥
इस समय तो जो कुछ कर सकती, सो ही मैंने करना है। कम से कम अब तीन युगो तक, इसी ढंग से फिरना है।