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रामायण
इस गिरितुङ्ग पर चढ़कर मैं निज नगरी ओर निहार तो ल' । कुछ पवन व्योम की सेवन कर थोड़ा सा और विचार तो लू ॥
दोहा
अपनी नगरी ओर । बढ़ा महा दुख घोर ॥
महारानी ने जब लखा घाव नमकवत् और भी पतिव्रता ध्यान पति का कर, हो निश्चय हाल बिहाल गई । किन्तु अपने आत्मबल से इस मन को तुरंत संभाल गई || अरुणावर्त की लहरो के सम, मोह ममता को टाल गई । थी आशा वादिन आशा कर, प्रतिज्ञा और कमाल गई ||
गाना नं० १४
( फंसे जो पाप में प्राणी वही ना )
प्रतिज्ञा आज करती हूँ वही करके दिखाऊगी |
राज का ताज अपने उदर के सुत को दिलाऊंगी ॥ १ ॥ तरक्की धर्म की व देश की नहीं होती है रोने से ।
धैर्य दिल को ढ़े करके किसी जंगल मे जाऊंगी ॥२॥ सदा अन्याय को तोड़े वही न्यायी कहाते है ।
करू' उद्यम वही शोभन सभी साधन जुटाऊंगी ॥३॥ यह प्राणी मोक्ष लेता है तो फिर दुनिया की वस्तु क्या । शुक्ल मै आशा वादिन हूँ तो फल आशा के पाऊंगी ||४|| दोहा
त्याग गये मुझको, मेरे प्राण पति आधार । अब निरर्थ मेरे लिये यह सोलह शृङ्गार | कर्त्तव्य सभी अपना मुझको, पालन अवश्य करना होगा । व्यवहार यही है दुनिया का निश्चय एक दिन मरना होगा ||