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वीर ब्राध
था वास एक दिन वस्ती का, अब जंगल मे रहना होगा। प्रतिकूल विपत्ति का समूह, अपने सिर पर सहना होगा। सदाचार सादापन ही, यह अब से मेरा भूषण है। समयानुसार पुरुषार्थ, करने मे ना कोई दूषण है।
आशा वादिन हूँ निश्चय, आशा मेरी फल लायेगी। पाप उदय खुस गई सम्पत्ति, पुण्य उदय मिल जायेगी। जो नाव भँवर में पड़ी हुई, पुरुषार्थ से तिर जायेगी। सर्वस्व लगा कर पति संपत्ति, हरी भरी लहरायेगी।
दोहा ससुर भूमि गृह नगर को, करती हूँ प्रणाम । अवसर पाकर हर्ष से, फेर मिलूगी आन । है पास पति का रत्न मेरे, बाकी सम्पत्ति का फिकर नहीं। इस पौदे की रक्षा के बिन, इस समय जबां पर जिकर नहीं । क्षत्री की हूँ सुता वीर योद्धा, वर की मैं रानी हूँ। और चण्डी हूं शत्रु के लिये, निज सुत के लिये भवानी हूँ॥ । पुत्र को राज दिलाऊंगी, तव ही माता कहलाऊंगी। अथवा समझूगी बॉम, या यों कहिये निज कूख लजाऊंगी।
दोहा तज अन्यो का आसरा, निज पर हो स्वालम्ब । दुखित हुई देती कभी, कर्मों को उपालम्भ ।। किन्तु कभी निराश होकर. भी उत्साह नहीं छोड़ा।
आपत्ति हजारों आने पर भी, लक्ष्य से मुख को नहीं मोड़ा ।। जिसकी दिल मे आशा थी, वह आशा एक दिन फल आई। मास सवा नौ के होते ही, सुत की सूरत नजर आई ।।