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वीर ब्राध
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दोहा
ठीक बहिन निज कर्म से, है सुख दुःख संयोग। कर्त्तव्य वही करना मुझ, जो होता है योग्य ।। सम्पत्ति पति की पास पुत्र को, नीतिकला सिखाऊंगी। पाताल लंक का राज्य करे, यह देख देख सुख पाऊंगी॥ अन्याय को नीचा दिखलावे, ऐसे साँचे मे ढालूगी। कर्त्तव्य जो होता जननी का, सम्पूर्ण इसको पालुगी॥ माता द्वारा वीर बाध की, दिन दिन कला सवाई है। अब शूर्पनखा की खबर, उधर दशकन्धर ने सुन पाई है ।।
दोहा इधर उधर को चलदिये, योद्धा करन तलाश ।
आखिर मुद्दा मिल गया, खर दूषण के पास ॥ क्रोधातुर हो भूप ने, दीना बिगुल बजाय । अस्त्र शस्त्र सज खडे, योद्धा सन्मुख आय ॥ दिव्य दृष्टि मन्दोदरी थी लाखो में एक । रावण को कहने लगी, करने को सुविवेक ।।
दोहा (मन्दोदरी) बुद्धिमत्ता है इसीमे, करे सोच कर काम ।
सोच से मुख लाली रहे, सोच बिना मुखश्याम ॥ प्राणनाथ यह तो बतलावो, किस पर कटक चढ़ाने लगे। जिसको जाने कुछ ही जने, तुम दुनियां बतलाने लगे। बात जो होवे निन्दा की, बस उसे दबा देना चाहिये। अपने कर्तव्यों पर भी, कुछ ध्यान लगा लेना चाहिये।