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रामायण
गान नं० १७ . (तर्ज-पाप का परिणाम प्राणी ) कर्म करने से प्रथम कुछ सोच करना चाहिये । लाभ हानि देख कर के, पांव भरना चाहिये ॥१॥ अपनी कमजोरी व बदनामी, छिपाना ही श्रेय । राजनीति पर भी तो, कुछ ध्यान धरना चाहिये ॥२।। खुदकी जांघ उघाड़ने से, शर्म खुद को आयेगी। गौरव हीनो को सदा फिर, डूब मरना चाहिये ॥३॥ जिस को चाहती है वह खुद, संयोग उससे ही करो। गम्भीरता का शुक्ल शरणा, सवको लेना चाहिये ॥४॥
दोहा काम स्वयम् राजा करे, वही प्रजामन भाय ।
आप ही रीत चला दई, अब क्यो मन घवराय ॥ कहो क्या कटक चढ़ा कर के, भगिनी को रांड बनावोगे । या और पति बनवा करके, काला मुह आप करावोगे। जहाँ परणावोगे वहाँ पर वह, तानों के दुख उठायेगी। जो भाग गई थी वही बहिन, रावण की यह कहलायेगी ।।
दोहा रहस्य भरी जब यह सुनी, बात अति सुखकार ।
ठीक सभी बुद्धि हुई, सत्य कहा यह नार ।। प्रेम भाव से खर दूषण संग, व्यावहारिक फिर विवाह किया। स्वाधीन बना करके अपने, पाताल लंक का राज दिया । अब हाल सुनो किष्किन्धा का, जहां बाली नृप बल धारी है। दशकन्धर को इख राज देन को, साफ हुआ इन्कारी है।।