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रामायण
विरक्त हुआ मन भोगी से, संयम व्रत नृप ने धारा है । तप जप संयम आराधन कर, बस आत्म कार्य सारा है।
दोहा एक दिवस गया भ्रमण को, दशकंधर भूपाल । पीछे जो भी कुछ हुवा, सुनो सभी वह हाल ।। शूर्पनखा का चाल चलन, प्रतिकूल था शुभ अवलाओं से ।
और काई पैदा होती है, जैसे कि श्रेष्ठ तालाबो से ॥ अन्य एक छोटी रियासत का, राजकुमर था खर दूषण । प्रिय विलासिता को ही जिसने, समझा था अपना भूषण ॥ हुवा परस्पर मेल इन्हो का एक मर्ज के रोगी थे। दश अन्धो मे अन्धे यह भी अशुभ कर्म के भोगी थे। या ले भागी या ले भागा कुछ समझे दोनो भाग गये। या यो समझे कि एक दूसरे का करके अनुराग गये ।।
दोहा पाताल लंक में गिरि एक देख किया स्थान । ग्रोह एक पैदा किया, और जङ्गी सामान । एक दिन लंक पाताल के, भूपति चन्द्रोदर को मार दिया। छल बल करके खर दूषण ने, फिर राज ताज संभाल लिया ।। अनुराधा श्री महारानी जो, सभी गुणो की ज्ञाता थी। थी धर्मरत गौरव वाली, पतिव्रता जग विख्याता थी॥
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