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रावण-वंश
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दोहा देखा चौथे स्वप्न में, सोलह कला निधान । __ ज्योतिषियो का शिरोमणि, ऐसा चन्द्र विमान । जब पैदा हुआ तब देख सुलक्षण, कह राजा सुनले रानी । शुभ नाम विभीषण देते है, सत्यवादी है उत्तम प्राणी ॥ यह ऐसा सरल स्वभावी है, हित सर्व मात्र का चाहेगा। निज पर की गणना नहीं इसके, सत्यपक्ष चित्त लायेगा।
दोहा एक समय दशकन्धर की, दृष्टि गगन मे जात ।
आता देख विमान एक, लगा पूछने बात ॥ वृतान्त कहो इसक्रा माता, जो आज सामने आता है। मेरे आगे कोई चीज नहीं क्यो, इतनी दमक दिखाता है।
और मेरे मन मे आता है, विमान तोड़ चकचूर करु। निज वक्षस्थल के तले दबा, इसका धड़ से सिर दूर करू॥
दोहा प्रभाविक-सुनकर वचन, रानी दिल हर्षाय । __ पूर्ववार्त्ता याद कर, हृदय गया मुर्भाय ।। झट नेत्रों मे जल भर लाई, गद् गद् स्वर से बतलानेलगी। मुझ भगिनी पति वैश्रवण भूप, दशकन्धर को समझानेलगी यह स्वाधीन है इन्द्र के, और पुण्य अतिशय छाया है। तुम पितामह को मार लंक गृही, राजा इसे बनाया है।
दोहा घनवाहन भूपाल से, तुम पितामह पर्यन्त । अखंड राज्य था लंक का, अब न रहा कुछ तन्त ॥