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रामायण
दोहा
' देख तमाशा पुत्र का, रानी खुशी अपार । पकड़ भूप पर ले गई. दिखलाने को हार ॥ स्वामी आभूषण गृह, खोला था इस बार । स्वयम् कुवर ने हार यह लिया गले में डार ॥ है देवाधिष्ठित हार आज तक, किसे नहीं पहना गल में। अविनय इसकी करने पर भी, भय खाते थे सब मन में ॥ मानिन्द पूजन के रक्खा था, यह पहिन खेल रहा लीला मे। और नौ प्रतिबिम्ब पड़े ऐसे, जैसे कि दमक अरीसा में ।।
दोहा छवि देख कर पुत्र की, मन में खुशी विशेष । दान पुण्य उत्सव करो, यह मेरा आदेश । इधर कान लगा करके, अब सुनले बात कहूं रानी। सुमाली गया था दर्शनार्थ, मुनि ज्ञानवन्त भाषी वाणी ॥ नौ माणिक्य का हार खुशी से, स्वयम् जो बालक पहिनेगा। शत्रु होवें आधीन सभी, और तीन खण्ड में फैलेगा।
___ दोहा नव प्रतिबिम्ब नौ माणिक्य, दशमा सहज सुभाय । पिता नाम दशमुख दिया, दशकन्धर कहलाय ॥ अबके रानी स्वप्न में देखा, देव विमान. सुत जाया तेजेश्वरी, भानुकर्ण तसु नाम ॥ अपर नाम था कुम्भ कर्ण, दिनदिन प्रति कला सवाई है। अब वार तीसरा पुत्री का जो, शूर्पनखा कहलाई है। शुक्ल जरा देखें आगे, यह कैसा रंग खिलायेगी। ससुर गृह और पितृ कुल, इन दोनो का नाश करायेगी ।