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रामायण
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दोहा
सुकेशी के सुतो के दिल में रोप अपार । राज लिए विना अपना, जीना है धिक्कार ॥ जीना है धिक्कार जिन्हो का, राज करे शत्रु होते । मनुष्य नही वह है, मृतक जो देख दुःख दिल मे रोते || मानिंद स्वान के रोना है, जो डण्डे खा छिप जा सोते । परशूर वीर रणक्षेत्रों में, अपनी यह जान सफल खोते ॥
दौड़
सहसा करी चढ़ाई, अति उत्साह मन मांहीं । निरघातज नृप घबराया, पराजय करके भगा दिया अपना अधिकार जमाया ||
दोहा
माली लंका अधिपति, विष्किन्धा सुर राज | बदला लेकर खुश हुए, धरा शीश पर ताज ॥
धरा शीश पर ताज खबर यह, इन्दर भूप सुन पाई है । . दल बल सबल विमान, सजाकर जंगी विगुल बजाई है || घेरा लाया चहुँ ओर से, मेघ घटा सम छाई है । वैश्रवण को दिया राज, माली की करी सफाई है ||
दौड़
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प्रसन्न मन मे प्रति भारा, आज शत्रु को मारा | राज लिया अपना सारा, पाताल लंक मे उधर सुमाली के मन मे
दुःख भारा।