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रामायण
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दोहा अपना लिया सजा तुरन्त, शुभ श्रीकंठ विमान । पहुंची यहां निज बाग मे, पद्मा साभिमान । पूछ सन्तरी से बीतक, बाते अन्दर प्रवेश किया। मीठी रसना के बने दास, कुछ लालच दे उपदेश दिया । प्रतिक्षा करने के पहिले, श्रीकंठ बाग मे आ पहुंचा। और बात परस्पर होने से, पहिले निज कर्तव्य को सोचा ।।
दोहा देखी जब श्री कंठ ने, पुण्य श्री यह खान । उपमा मिलती ही नही, कैसे करे व्याख्यान ॥ पद्मा थी बेशक चन्द्रमा, श्रीकंठ न भानु से कम था । यदि वह थी सुवर्ण की मुद्री, यह भी न नगीने से कम था। मानो थी सांचे में ढाली, पर यह भी नकशक मे सम था। प्रेम संस्कारी दोनो का, एक दूजे से विषम न था। जब सहित वीर रस के सहसा, उस काम देव तन को देखा। लज्जा से ग्रीवा झुका लई, और तिरछे चितवन को देखा ॥ लक्षण व्यञ्जन देख फेर, ना पूछन की दरकार रही। स्वर व्यञ्जन लक्षण के ज्ञाता, कुछ कहते बारम्बार नहीं ॥
दोहा जो मतलब की बात थी, बतलाई तत्काल । पद्मा से कहने लगा, इस कारण का हाल ।। निश्चय अपना और तेरा, घटा रहा हूं मान । इसका भी कारण सुनो, जरा लगाकर कान ।। मेधाभिदापुर नगर है, अतीन्द्र पिता भूपाल । श्रीकंठ मम नाम है, श्रीमती शुभ मात ।।