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बालि-वंश
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बहिन मेरी गुणसाला जो कि, पिता तेरे ने मांगी थी। पर तात मेरे ने अति बहुत, कहने पर भी ना मानी थी । उसी दिवस से जनक तेरा, हमसे विरुद्ध है बना हुआ।
और शक्ति मे भी अपने से, हमने तेजस्वी गिना हुआ। बस कारण केवल एक यही, तुमको ऐसे ले जाने का।
और ऐसा किये विना निश्चय, दिल को सन्तोष न आने का ।। अब जान की साथन सच्ची होतो, जल्द विमान मे चरण धरो। कैसे होगा क्या बीतेगी, इसका ना रंज न भर्म करो। दे चुका तुम्हे दिल क्षत्री हूं, मुझसे ना संका शर्म करो। क्षत्राणी होना तुम भी तो, निर्भय होकर निज कर्म करो ॥ जब तक ना आपका दिल होगा, तब तक ना कभी ले जाऊँगा। कर चुका संकल्प तन मन धन, अपना तुमको दे जाऊँगा ।। यदि अब ना तो पर भव मे तुमको, अवश्य मानना होगा। तुम पछताओगे बार बार, परिवार मुझे सब रोवेगा। कुछ जोर जफा ना तुम पर है, ना गिला हमे कुछ होगा। पर नींद हमेशा की बन्दा भी, इसी बाग मे सोवेगा।
दोहा बात पुराणी आगई, आज मुझे भी याद । भग न होनी चाहिये, सतियो की मरयाद ।। अष्टांग ज्योतिषी ने बतलाया, सो ही अक्षर मिलते है। कर्म निकाचित भोगावली, उद्यम से भी नही टलते है । प्रतिज्ञा से विपरीत कही, सादी मैने नहीं करनी है। मात पिता परिजन क्या, चाहे उलट जाय यह धरनी है।
दोहा आदि श्री और अन्त ठ, मध्य क कार उचार । । सम अतर व्यञ्जन सहित, नाता जग सुखकार ॥