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बालि-वंश rrrrrrrwwwwwwwwwmmm
पदसा मस्तानी जाती थी, जौहर गौहर से भरी हुई। मुख पर लाली थी सह स्वभाव, कुछ सूर्य ने चौचन्दकरी १ कुछ शशी स्पर्धा के मारेने, अपनी किरण बुलन्दकरी ।। पक्षी गण गायन करते थे, फूलों ने हंसना शुरू किया । यह अवसर देव हवा ने भी, अपना बहना तनु किया ।। पद्मा को स्पर्श करने को, तरुवर भी टान मुकाते थे। वह पत्र फूल स्वागत करने को, अपना आप मिटाते थे। एक दूसरे से पहले, बस मार्ग से बिछ जाते थे। यह सोच अंगना मैला हो, धूली समूह छिप जाते थे। मोर नृत्य कर कूक शब्द से, मीठा वचन सुनाते थे। जिसने देखा यह पुण्य तनु, सब शोक समूह मिट जाते है। चालीगति हम निराली सम,गिनगिदकर कदम उठातीथी। वह चिन्ह कुदरती तनपर थे सुर ललना भी मुर्भाती थी।
दोहा इसी सार्य प्रारहा, था सन्मुख श्री कण्ठ ३
ठहर बाग तटपर जरा, लगा लेन कुछ "ठण्ड" ! पुण्यरूप वह पद्मा का सुख, श्री कठने जब देखा। कुछ सहसा झलक दिखाकर के जा धसी वागमें वह रेखा ।। यहाँ मोह कर्म के उदय भाव से, पराधीन हुआ चोला है। रफिर मन ही मन मे श्री कण्ठ, अपने मुख से यो बोला है ।।
गाना नं० २ कहाँ गई वह कामिनी, दिल देख मतवाला हुआ। मोहिनी मूर्त वदन, सांचे मे था ढाला हुवा ।। प्यासा इसी के दर्शका, सूर्य भी अस्ताचल खड़ा । आ रहा इन्दु उधर से, करता उजियाला हुआ ॥