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बालि-वंश
कुछ श्रीकंठ के चेहरे का, पहिले ही रंग गुलाबी था । कुछ संध्या रग से और खिल गया, सन्मुख अर्चिमाली था || लक्षण व्यञ्जन गुण अवगुण, विद्या के दोनो ज्ञाता थे । संयोग मिलाने बन बैठे, मानो शुभ कर्म विधाता थे |
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दोहा
दोनो निज रस्ते लगे, भाव हृदय में धार । राज कुमारी जा धसी, अपने बाग मंकार |
दोहा
आकार और आभ्यन्तर में, जैसी चेष्टा होय । भाषा नेत्र विकार से, जाने बुद्धि जन कोय | बस एक दूसरे के अन्तरगत, मन भावो को भाष गये । कुछ मेरा है अनुराग इसे, उसको मेरा यह जांच गये ॥ कुछ पूर्व जन्म का प्रेम, और आयु भी कुछ स्वीकारती है । कुछ लक्षण व्यंजन आकर्षण, शक्ति भी हाथ पसारती है ॥ चरित्र मोहनी कर्म उदय, जिस प्राणी का जब आता है । उस काम से लाख यतन करने पर भी नहीं हटना चाहता है | मन का मन साक्षी होता, यह उदाहरण भी जाहिर है । जो मर्ज थी श्रीकंठ को यहां, पद्मा ना उससे बाहिर है ||
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गाना नं० ५
मनोहर रूप पर मोहित ये, तबियत होई जाती है । अनोखी देखकर रचना को, उल्फत होई जाती है | अगर आज्ञा बिना स्वामी के, वस्तु लेना चोरी है । मनोहर मूर्ति से यो. महोब्बत होई जाती है ॥ यदि मांगू मै राजा से, नहीं मानेगा हठ धर्मी । हुआ अपमान जिसका उसको, नफरत होई जाती है ।