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रामायण
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ना किसी मित्र या सज्जन का, स्वागत पूरा कर सकते है। यदि परतन्त्रता तजे कही, तो पेट नहीं भर सकते है ।
दोहा (श्रीकंठ) मित्र क्या कहने लगे, भोली भोली बात । कभी श्याम दिन रात्रि, कभी होय प्रभात ॥ जो भेद नजर आता यहाँ, बेशक, कर्त्तव्य पूर्व जन्म कैसे। स्वतन्त्र और परतन्त्र बने, जैसा कोई कर्म करे कैसे ।। स्वतन्त्र होकर भी तुमने, सेवा की है चित्त लाकर के। परतन्त्र कौन कर सकता है, स्वार्थ में मन फंसा करके ।। यदि कर्म तेरे सीधे होगे, कल स्वतन्त्र बन जावोगे। क्यो पहिरेदार रहेगा यहाँ, निज घट में मौज उडावोगे ॥ मित्र जो कह चुके तुम्हे, मित्र का अंग पुगावेगे। अपना चाहे काम बने ना बने, पर बना तुम्हारा जावेंगे। जो पांच मोहर वापिस ले लू, क्या तुम पर अविश्वासी हूं। विश्राम यहां करने से मैं, बना चुका मित्र संग वासी हूं। तुझमे मुझमे ना भेद कोई, यदि है तो मन से दूर करो। स्वावलम्बी हो बस अपने पर, इस निर्बलता को दूर करो ।
दोहा
पद्मा के रथ का सुना, जब सुदूर झंकार । 'धमकल' झटपट जा, हुआ पहिरे पर अवसार ।। श्री कंठ ने भी पद्मा के, सन्मुख ही प्रस्थान किया। और पैदल चलने की सीमा पर, पद्मा ने तज यान दिया। आ मेल परस्पर हुआ वहां, कुछ संध्या ने रंग बर्साया । कुछ बाग दुतर्फी फल फूलो, ने भी अपना रंग दर्शाया ॥