________________
२२
रामायण
गाना नं० ४
मन नहीं बस मे. रहा, जब सुन्दर सूरत देखली । मोहिनी जादू भरी एक, चन्द्र मूरत देखली ॥ प्रेम की वीणा लिये, प्रेमी गुणों को गा रहा । राग की झनकर ने भी प्रेम की गत देख ली ॥ चूमते उपवन की चौखट, है खड़े दर्वान बन । क्या क्या अनुचित कर्म, करवाती है चाहत देख ली || वैद्य के आगे न रोगी, रोये तो रोये कहां । प्रेम प्राणी मात्र की, करता है जो गत देखली ॥ प्रेम के सागर में, आशाओ की लहरे उठ रही । प्रेम बस बुद्धि हुई, कैसी है मदमत्त देखली ॥ प्रेम बस अनुचित, उचित का ज्ञान कुछ रहता नहीं । प्रेम के रंग मे रंगे, शब्दो की रंगत देखली ॥ देख तेरे दर्शनो की, भीख आये मांगने । दिव्य दृष्टि से जभी, दाता की आदत देखली ॥
दोहा
1
जहां सम्पत्ति तहाँ पराहुणे. और याचक गण जाया । मेघ वहाँ श्रावण जहां, बर्सन को तहां जाय ॥ सास जहां तक जीती है, तब तक सासरा कहता है तीनो का जहां अभाव वहाँ पर कौन कहाँ कोई जाता है || विद्या वचन वपु वस्त्र, अरु विभव पांच वकार जहां । शुक्ल वहां जाना चाहिये, सुन्दर हों पांच, वकार जहां ॥ जल रसना दोनों मीठे, दुखियो का दुख जानते हो । शुभ विद्या और मति शोभन, गुण अवगुण को पहिचानते हों ॥