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बालि-वंश
शुक्ल सत्य जानो, कि दो तीन दिन मे । चिकित्सा का होवेगा, मुझ पर असर है |
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दोहा
श्रीकण्ठ ने इस तरह, किया वहाँ विश्राम | ढंग वही करने लगा, वने जिस तरह काम || मन ही मन मे सोच के, भिदापुर के नाथ ।
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कुशल पूछ दर्वान से, मिले प्रेम के प्रेम देख श्रीकण्ठ का, चकित हुआ बोला श्री महाराज मै हूं निर्धन अनजान ॥
साथ ॥ दर्बान ।
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श्रीमान करना क्षमा, मैने श्रीमान को पहिचाना ही नही । एक निर्धन ने ऐसे प्रेमी, धनवान को पहिचाना ही नही || जो राव रङ्क का मान करे, गुणवान को पहिचाना ही नही । है कौन देश के आप रत्न, भगवान् को पहिचाना ही नही || बोले श्रीकण्ठ मैं परदेशी, यहाॅ भूला भटका नाया विश्राम के कारण ठहर गया, और भूखका अधिक सताया हूं ॥ एक श्रमित बटोही परदेशी पर, इतना तुम उपकार करो । भूखे की भूख मिटा कर तुम, एक अतिथि का सत्कार करो || कर भला भला होगा तेरा, मन मे न जरा विचार करो । उपकार के बदले मे भाई, यह पुरस्कार स्वीकार करो ॥
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दोहा
मोहरे लेकर हाथ मे, भूल गया सब ज्ञान । शीश नवा कर चल दिया, खुशी खुशी दवन ॥ मोहरें लेकर चल दिया, जब यह पहिरेदार | प्रेम पत्र लिखने लगा, श्रीकठ सुकुमार ॥