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________________ बालि-वंश शुक्ल सत्य जानो, कि दो तीन दिन मे । चिकित्सा का होवेगा, मुझ पर असर है | २१ दोहा श्रीकण्ठ ने इस तरह, किया वहाँ विश्राम | ढंग वही करने लगा, वने जिस तरह काम || मन ही मन मे सोच के, भिदापुर के नाथ । 1/ कुशल पूछ दर्वान से, मिले प्रेम के प्रेम देख श्रीकण्ठ का, चकित हुआ बोला श्री महाराज मै हूं निर्धन अनजान ॥ साथ ॥ दर्बान । 5 t श्रीमान करना क्षमा, मैने श्रीमान को पहिचाना ही नही । एक निर्धन ने ऐसे प्रेमी, धनवान को पहिचाना ही नही || जो राव रङ्क का मान करे, गुणवान को पहिचाना ही नही । है कौन देश के आप रत्न, भगवान् को पहिचाना ही नही || बोले श्रीकण्ठ मैं परदेशी, यहाॅ भूला भटका नाया विश्राम के कारण ठहर गया, और भूखका अधिक सताया हूं ॥ एक श्रमित बटोही परदेशी पर, इतना तुम उपकार करो । भूखे की भूख मिटा कर तुम, एक अतिथि का सत्कार करो || कर भला भला होगा तेरा, मन मे न जरा विचार करो । उपकार के बदले मे भाई, यह पुरस्कार स्वीकार करो ॥ I दोहा मोहरे लेकर हाथ मे, भूल गया सब ज्ञान । शीश नवा कर चल दिया, खुशी खुशी दवन ॥ मोहरें लेकर चल दिया, जब यह पहिरेदार | प्रेम पत्र लिखने लगा, श्रीकठ सुकुमार ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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