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अमलानन्द-अमृत
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खण्डधाम' अठारहवीं शताब्दी का एक वैष्णव योगमत राजाओं द्वारा निर्मित हुआ था। दे० जर्नल ऑफ रायल का ग्रन्थ है।
एशियाटिक सोसायटी, जिल्द ३, पृ०, १३२ । अमलानन्द आचार्य अमलानन्द का प्रादुर्भाव दक्षिण भारत अमा-चन्द्रमण्डल की सोलहवीं कला : में हुआ। वे यादव राजा महादेव और रामचन्द्र के सम- अमा षोडशभागेन देवि प्रोक्ता महाकला। सामयिक थे ।देवगिरि के राजा महादेव ने वि० सं० १३१७- संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणी ।। १३२८ तक शासन किया। वि० सं० १३५४ में रामचन्द्र
(स्कन्द पुराण, प्रभास खण्ड) पर अलाउद्दीन ने आक्रमण किया था। अमलानन्द ने अपने [हे देवी, चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त आधारग्रन्थ 'वेदान्तकल्पतरु' में ग्रन्थ रचना के काल के विषय शक्ति रूप, क्षय एवं उदय से रहित, नित्य फूलों की में जो कुछ लिखा है, उससे मालूम होता है कि दोनों माला के समान सबमें गुथी हई अमा नाम की महाकला राजाओं के समय में ग्रन्थ लिखा गया था। जान पड़ता है कही गयी है। ] कि अमलानन्द तेरहवीं शताब्दी के अन्त में हए और उनका अमावस्या-कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि । इस तिथि में ग्रन्थ वि० सं० १३५४ के पूर्व लिखा गया था, क्योंकि उसमें चन्द्रमा तथा सूर्य एक साथ रहते हैं । यह चन्द्रमण्डल की अलाउद्दीन के आक्रमण का उल्लेख नही मिलता । वे देव- पन्द्रहवीं कला रूप है अथवा उस क्रिया से उपलक्षित काल गिरि राज्य के अन्तर्गत किसी स्थान में रहते थे। उनके है। सूर्य और चन्द्रमा का जो परस्पर मिलन होता है उसे जन्मस्थान आदि के विषय में कुछ नहीं मालूम होता।- अमावस्या कहते हैं (गोभिल)। उसके पययि हैं : अमाउनके गुरु का नाम अनुभवानन्द था।।
वास्या, दर्श, सूर्यचन्द्र-संगम, पञ्चदशी, अमावसी, अमावासी, अमलानन्द अद्वैतमत के समर्थक थे। उनके लिखे तोन
अमामसी, अमामासी । जिस अमावस्या की चन्द्रकला दिखाई ग्रन्थ मिलते हैं : पहला 'वेदान्तकल्पतरु' है जिसमें वाचस्पति दे वह 'सिनीवाली' और जिसकी चन्द्रकला न दिखाई दे मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है। यह वह 'कुहू' कहलाती है । भी अद्वैत मत का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है और बाद अमावस्यापयोव्रत-यह व्रत प्रत्येक अमावस्या को केवल के आचार्यों ने इससे भी प्रमाण ग्रहण किया है। दूसरा है
दुग्ध पान के साथ किया जाता है और एक वर्ष तक 'शास्त्रदर्पण' । इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या चलता है । इसमें विष्णु-पूजन होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतकी गयी है । तीसरा ग्रन्थ है 'पञ्चपादिका दर्पण'। यह खण्ड, २, २५४ ।। पद्मपादाचार्य की 'पञ्चपादिका' की व्याख्या है । इन तीनों - अमावस्यावत-कूर्मपुराण के अनुसार यह शिवजी का व्रत ग्रन्थों की भाषा प्राञ्जल और भाव गम्भीर हैं।
है । पुराणों के अनुसार अमावस्या यदि सोम, मङ्गल या अमरावती--(१) जिस नगरी में देवता लोग रहते हैं । इसे गुरु को पड़े, साथ ही अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति इन्द्रपुरी भी कहते हैं । इसके पर्याय है-(१) पूषभासा, नक्षत्रों के साथ हो, तो विशेष पवित्र समझी जाती है। (२) देवपूः, (३) महेन्द्रनगरी, (४) अमरा और (५) अमावस्या एवं प्रतिपदा के योग से अमावस्या तथा चतुर्दशी सुरपुरी।
का योग अच्छा समझा जाता है। (२) सीमान्त प्रदेश (पाकिस्तान ) में जलाला- अमृत-जिससे मरण नहीं होता। इसके पीने वालों की बाद से दो मील पश्चिम नगरहार । फाहियान इसको 'ने- मृत्यु नहीं होती, इसीलिए इसे अमृत कहते हैं। यह समुद्र किये-लोहो' कहता । पालि साहित्य की अमरावती यही । से निकला हआ, देवताओं के पीने योग्य तथा अमरत्व है। कोण्डण्ण बुद्ध के समय में यह नगर अठारह 'ली' प्रदान करने वाला द्रव्य विशेष है। महाभारत में अमृत विस्तृत था । यहीं पर उनका प्रथम उपदेश हुआ था। की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है : “जिस समय राजा
(३) अमरावती नामक स्तूप, जो दक्षिण भारत के कृष्णा पृथु के भय से पृथ्वी गो बन गयी उस समय देवताओं ने 'जले में बेजवाड़ा से पश्चिम और धरणीकोट के दक्षिण इन्द्र को बछड़ा बनाकर सोने के पात्र में अमृत रूप दूध
कृष्णा के दक्षिण तट पर स्थित है। हुयेनसांग का पूर्व शैल दुहा । वह दुर्वासा के शाप से समुद्र में चला गया। इसके संघाराम यही है । यह स्तुप ३७०-३८०ई० में आन्ध्रभृत्य अनन्तर ससुद्र के मन्थन द्वारा अ त से पूर्ण कलश को
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