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[ पुण्य-पाप की व्याख्या नियम है कि क्रमोंके अनुमारही गुणोंकी वृद्धि होती है और गुणों के अनुसार योनियोंकी प्राप्ती होती है, जैसा गीता अ० १४ श्लो. १८ में भगवान् ने कहा है -
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वेस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || अर्थात् सत्त्वगुणी पुरुष ऊर्ध्व लोकोंको जाते हैं, रजोगुणी मध्यमें अर्थात मनुष्य लोकमें रहते है और नाममी पुरुष अधोगति तिर्यगादि (कीट, पश्चादि ) योनिको प्राप्त होते हैं।
दोनों अवस्थाओकी प्राप्ति अव इसके अधीन है और दोनों मार्ग यहींसे आर भ होते हैं। अहकार यद्यपि पशु-पक्षियोंसे भी विद्यमान है, अहंकारके विना भूख-प्याम तथा उनकी निवृत्ति का साधन, इत्यादि ध्यपहारकी लिद्धि ही नहीं देती। परन्तु उनमें अहंकार अभी जाग्रत-त्रावस्थाको प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि भ्वातुल्य है। जिस प्रकार मनुष्य के लिये ग्वप्नावस्थामें किय हुए कर्म पुरव-पापके संसार उत्पन्न करकं इसके बन्धनके हेतु नहीं होने, जिप प्रकार बाल्याव थामें किये गये शुभाशुभ कर्मके लिये राज्यकी ओरसे बालकके उपर कोई दायित्व नहीं प्रारोपित किया जाता; इसी प्रकार उन तियेगादि रोनियों में अहकार का विकास स्वप्न-अवस्था तक ही परिमित रहनेके कारण ये भी किसी दायित्वके भागी नहीं हो सकते । उनके कर्म पुण्य-पापक हेतु नो तव हो जबकि वे सरकार को उत्पन्न करें, परन्तु कुद्धिकी अपूर्णताके कारण और कर्तुत्वाहकारके स्वमवत् रहने के कारण उनके कर्म मंकारको ही उत्पन्न नहीं कर सकते । इसीलिये उनको अपनी योनियोके कर्मोका पुण्य-पाप असम्भव है। कि अव मनुष्य-योनिको प्राप्त करके जीवने अहंकारकी पूर्णता प्राप्त करनी है, पाँचों कोशोंका विकास होचुका है, प्रकृनि-माताने सर्व प्रकार इसको योग्य बनाकर इस परसे अपनी जम्मवारी हटाता