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[साधारण धर्म में कर्मको मी पदार्थ माना गया है और उसके १ उत्क्षेपण (उपर फैकना) २ अपक्षेपण (नीचे फेंकना)३ श्राकुञ्चन (सुकोड़ना) ४ प्रसारण (कैलाना) ५ गमन (चलना) ये पॉच भेद किये गये हैं, और जितनी भी क्रिया है इन पाँचोंके अन्तर्गत ही मानी गई हैं । परन्तु वेदान्त कर्मकी व्याख्या विलक्षण रीतिसे करता है। वेदान्तदृष्टिसे हिलन चलन आदि गति ही कर्मरूप नहीं, किन्तु शरीरके अन्दर-बाहर प्रत्येक क्षण ऐसी असंख्य चेष्टाएँ प्रकट होती हैं जो शरीरद्वारा प्रकट होते हुए भी वेदान्तष्टिसे वास्तविक रूपसे कर्मकी व्याख्या में सम्मिलित नहीं होती। उदाहरण रूपसे समझ सकते हैं कि भोजन खानेके पीछे पककर मल आदि विसर्जन होनेतक खाद्यको असंख्य नाडियोंमेंसे निकलना पड़ता है और वह असख्य परिणामोंको प्राप्त होता है। सम्पूर्ण नाड़ियोंमें प्रत्येक क्षण रक्त सञ्चार हो रहा है, शरीरके रोम-रोममें क्रिया हो रही है, चाल बढ़ रहे हैं, ऑखोंकी पलकें हिलती है, अङ्ग फड़कते हैं, उन सब चेष्टाओंको कौन गिनती कर सकता है । यद्यपि ये सब चेष्टाएँ शरीरमें वर्त रही हैं, परन्तु वेदान्तष्टिसे वे कर्मकी यथार्थ गणनामें नहीं आ सकतीं। वेदान्तदृष्टिसे उन्हीं शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक चेष्टाओं का नाम कर्म है जिनके साथ मनका सम्बन्ध है। गीताने इसी आशयसे कर्मकी व्याख्या एक ही पादमें इस प्रकार की है। 'भूतभावोद्भचकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥' (अ.८, ३)
अर्थात् भूतोंमें भावको उत्पन्न करनेवाले चेष्टारून व्यापार की 'कर्म' नामसे संज्ञा की गई है।
___ मन व बुद्धिमें जो सन्दरूप परिणाम होता है उसीका नाम 'भाव' है । इसलिये जो चेष्टाएँ मन-बुद्धिमें, अथवा मनवुद्धि की आदतमें होती हैं वे ही 'कर्म हैं। जिन चेष्टाओंमें मन-बुद्धि