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[साधारण धमे अर्थ ..जो तेन सूर्यमे स्थित हुआ अखिल ब्रह्माण्डको प्रकाशित कर रही है और चन्द्रमा तथा अग्निमें जो तेज है, वह तेज तू मेरा ही जान । .
यही सूर्यमूर्तिमें कारण-ब्रह्मम्प सामग्री है।
गणानां ईश: गणेशः । गणानां पति गणपति । अर्थात् गणेशमूर्तिमें कारण- गणोंका ईश्वर, गणोंका स्वामी, गणेश प्रशासनिर्गणभाव | गणपत्ति' शब्दका अर्थ है । गण नाम .. .-समूहका है। यहाँ शिवगण ही केवल गणरूपसे ग्रहण करनेयोग्य नहीं, किन्तु समष्टि मन-इन्द्रियादि अध्यात्मगण, उन मन-इन्द्रियोंके सञ्चालक देवतारूप अधिदैवगण और श्रीकाशादि पञ्चतत्त्वरूप अधिभूतगण भी 'गण' शब्दः का अर्थ ग्रहण करनेयोग्य है । इन समष्टि अध्यात्म, अधिदेव व अधिभूत गणोका स्वामी ही 'गणेश' शब्दका भावार्थ है। ऐसा सब गणोंका स्वामी 'एकमेवाद्वितीयम्' सत्त्वगुणकी मूर्ति
और केवल ठोस सत्त्वगुण ही गणेशरूपसे उपास्य है । गणेशमूर्तिमें सव अङ्ग सत्त्वगुणके ही परिचायक हैं । यह अटल सिद्धान्त है कि जहॉ रजोगुण उत्पन्न होता है वहीं सव विघ्न
आन उपस्थित होते हैं । जब-जब अहंकर्तृत्व-अभिमान आता है तव-तव ही चञ्चलता, मत्सरता, दर्प, राग, द्वीप और विफलतादि सब विनसामग्री अपने-अपने स्थानपर आ विराजती हैं
और जब उनका नाशक सत्वगुणरूप गणेश था जाता है तव सव विनोंका अभाव हो जाता है। अर्थात् जब ये भाव हृदयमें समा जाते हैं कि 'सर्व कर्ता-धर्ता वह अन्तर्यामीदेव ही है, बुद्धिमें, वैठकर वही निश्चय कर रहा है, मनमें विराजकर वही. सङ्कल्प कर रहा है, फिर ज्ञान-इन्द्रियोंके साथ मिलकर कर्मेन्द्रियोंको गति वहीं दे रहा है, यहॉतक कि प्रत्येक नाड़ीको वही चला रहा है, हमारा अपना कर्तृत्व तो आटेमें नमकके मान भी नहीं।